बनने से पहले बिखरती राहुल कांग्रेस

लगभग दो साल से पूर्णकालिक अध्यक्ष के बिना ही जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक अग्निपरीक्षा से गुजर रही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो पता नहीं फिर से पार्टी के राजा बनने का मन कब बना पायेंगे, लेकिन उनकी युवा ब्रिगेड के खास सदस्य माने जाते रहे किरदारों ने एक-एक कर किनारा करना ही शुरू नहीं कर दिया, बल्कि उस भाजपा का दामन भी थामना शुरू कर दिया है, कांग्रेस-मुक्त भारत जिसका घोषित मिशन है। पिछले साल मार्च में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका देने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया थे, जिन्हें राहुल के सबसे करीब माना जाता रहा। सिंधिया अकेले नहीं गये। इतने कांग्रेस विधायक भी ले गये कि कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार जाती रही और शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में फिर से भाजपा सरकार की वापसी हो गयी। मध्य प्रदेश के बाद पिछले साल कोरोना काल में ही राजस्थान में भी ऐसे ही सत्ता परिवर्तन की पटकथा लिखी जा रही थी। मध्य प्रदेश में सिंधिया की तरह राजस्थान में सचिन पायलट को भी लगता है कि मुख्यमंत्री पद पर उनकी दावेदारी थी, जिसे पुराने खिलाड़ी अशोक गहलोत ने हड़प लिया।
तीखे तेवर दिखाने के बाद भी सचिन ने कांग्रेस की लक्ष्मण रेखा क्यों पार नहीं की—इसकी कई व्याख्याएं की गयीं। सचिन खेमे से धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता के नाम पर भाजपा में न जाने की बात दोहरायी जाती रही तो गहलोत खेमा उनके पास पर्याप्त विधायक न होने का तंज कसता रहा। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के रुख को लेकर आशंकित भाजपा रणनीति के तहत मौन ही रही। नतीजतन मध्य प्रदेश में सरकार गंवाने के लिए चौतरफा आलोचना का पात्र बना कांग्रेस आलाकमान समय से सक्रिय होकर सचिन को मनाने और अंतत: राजस्थान में सरकार बचाने में सफल रहा। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि पूरे घटनाक्रम से जरूरी सबक सीखा गया। ऐसा इसलिए कि लंबा समय गुजर जाने के बावजूद कांग्रेस संगठन और गहलोत सरकार में सचिन समर्थकों को अभी तक एडजस्ट नहीं किया गया। मध्य प्रदेश और राजस्थान के घटनाक्रम का एक जरूरी सबक यह भी था कि अन्य राज्यों में अंतर्कलह के मुखर होने से पहले ही अपना घर ठीक कर लिया जाये। आलाकमान द्वारा गठित समिति के समक्ष पिछले सप्ताह पंजाब कांग्रेस के विभिन्न गुटों की पेशी तथा इसी सप्ताह उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक बड़े चेहरे जितिन प्रसाद का भाजपा में शामिल हो जाना बताता है कि कांग्रेस जनता के बीच ही नहीं, खुद कांग्रेसियों के बीच जबरदस्त अविश्वास के दौर से गुजर रही है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में केंद्रीय सत्ता गंवाने से ठीक पहले और उसके बाद भी कांग्रेस से भाजपा में पलायन कम नहीं हुआ, लेकिन तब उसे ऐसे पुराने कांग्रेसियों की सत्ता लोलुपता मान लिया गया, जो बिना सत्ता रह ही नहीं सकते। यह भी कि राजनीतिक हवा के साथ रुख बदलना जिनकी फितरत थी। बेशक पुराने दिग्गजों का खासकर संकटकाल में दल बदलना किसी भी दल के लिए बड़ा झटका ही है, लेकिन कांग्रेस में ताजा भगदड़ ज्यादा चिंताजनक इसलिए भी है, क्योंकि भागने वाले या भागने को तैयार किरदार वे हैं, जिनके सहारे राहुल गांधी कांग्रेस का कायाकल्प करना चाहते थे। तमाम तर्क और सलाह के बावजूद राहुल गांधी तो मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री नहीं बने, लेकिन आखिरी वर्षों में ही सही, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और आरपीएन सिंह सरीखों को यह अवसर भी दिया गया । इसके बावजूद राहुल गांधी के ये सिपहसालार एक के बाद एक कांग्रेस को डूबता जहाज मान कर सत्ता के तेज रफ्तार स्टीमर भाजपा पर छलांग लगाने को उतावले नजर आ रहे हैं तो इन्हें अवसरवादी सत्ता लोलुप करार देने और भाजपा को कोसने के अलावा कांग्रेस आलाकमान को आत्मविश्लेषण करने की भी जरूरत है। पुरानों-नयों के बीच सत्ता संघर्ष हर दल में रहता ही है। यह जिम्मेदारी स्वाभाविक ही आलाकमान की होती है कि वह बदलती पीढिय़ों और अनुभव एवं जोश में सही संतुलन बना कर चले।
अगर राहुल गांधी अपने इन्हीं सिपहसालारों के सहारे नयी कांग्रेस और बेहतर राजनीतिक संस्कृति बनाना चाहते हैं तो उन्हें इनके संरक्षण में भी खड़ा होना चाहिए। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह सरीखे खुर्राट कांग्रेसियों ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के इर्दगिर्द चक्रव्यूह रचा, पर राहुल मूकदर्शक बने रहे। मुख्यमंत्री पद से शुरू संघर्ष जब राज्यसभा सदस्यता के रास्ते विधायक दल में बगावत और राज्य सरकार पर संकट में तबदील हुआ, तब भी राहुल सक्रिय होने के बजाय खुद रूठे-से नजर आये। जाहिर है, वह लोकतांत्रिक–राजनीतिक व्यवहार कम, राजवंशी अहमन्यता अधिक थी। सिंधिया और राज्य सरकार गंवाने के झटके का इतना असर तो अवश्य हुआ कि राजस्थान में सचिन पायलट को लक्ष्मण रेखा लांघने से पहले ही मना लिया गया। इस तरह वहां कांग्रेस सरकार भी बच गयी, लेकिन दोनों खेमों में मतभेद और मनभेद मिटा कर संतुलन–समन्वय बनाने के लिए अभी तक कुछ भी नहीं किया गया। न सचिन को सम्मानजनक स्थान मिला, न ही उनके समर्थकों को सरकार–संगठन में हिस्सेदारी। ऐसे में जितिन प्रसाद के पाला बदलते ही सचिन समर्थकों के फिर से मुखर होने के लिए सिर्फ उन्हें दोष कैसे दिया जा सकता है? दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव हारने वाले जितिन को पश्चिम बंगाल का चुनाव प्रभार सौंपा गया, लेकिन चुनाव परिणाम के महीने भर बाद उन्होंने खुद ही कमल थाम लिया। निश्चय ही यह कांग्रेस आलाकमान की व्यक्ति और राजनीति की समझ पर सवालिया निशान भी लगाता है।
पंजाब कांग्रेस के जिस अंतर्कलह को सुलझाने के लिए आलाकमान को अब समिति बनाने की सुध आयी, वह भी पुराना है। क्रिकेटर से राजनेता और भाजपाई से कांग्रेसी बने नवजोत सिंह सिद्धू तो मंत्री पद से इस्तीफे के बाद से मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। सिद्धू कई बार आलाकमान से मिले और कई बार कैप्टन से मतभेद दूर होने की चर्चाएं भी चलीं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। अब जबकि विधानसभा चुनावों में साल भर भी नहीं रह गया है और कैप्टन के विरुद्ध असंतोष बड़े पैमाने पर मुखर होने लगा है तो आलाकमान की तंद्रा टूटी है। कैप्टन विरोधियों की संख्या तो निश्चय ही बढ़ी है, लेकिन उनमें से शायद ही किसी का अपने चुनाव क्षेत्र के बाहर कोई प्रभाव हो। फिर इनमें से कुछ तो आम आदमी पार्टी के भी संपर्क में हैं, जिसकी चुनावी संभावनाएं कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों को बेहतर नजर आ रही हैं। वैसे भी चुनाव से आठ-नौ महीने पहले बड़ा जोखिम उठाना साहस कम, दुस्साहस ज्यादा साबित हो सकता है। हां, समय से असंतोष सुलझा कर कांग्रेस अपनी चुनावी संभावनाओं को अवश्य बेहतर बना सकती थी।
पिछले साल से ही जी-23 के नाम से मशहूर कुछ नेताओं ने कांग्रेस में संगठनात्मक सुधार का अभियान चला रखा है। इनके अगुआ माने जाने वाले गुलाम नबी आजाद की बाबत कहा गया कि राज्यसभा सदस्यता की समाप्ति को लेकर वह ज्यादा परेशान थे। कांग्रेस में संगठनात्मक सुधार तो अभी तक नजर नहीं आया, पर तमिलनाडु से आजाद की राज्यसभा में वापसी की संभावनाएं अवश्य प्रबल हो गयी हैं। इतने भर से कांग्रेस सुधर जायेगी या फिर कोई दूसरा नेता संगठनात्मक सुधार का मोर्चा संभालेगा—जल्द पता चल जायेगा। हां, इतना तय है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया से शुरू हुआ कांग्रेस से पलायन जितिन प्रसाद पर ही रुकने वाला नहीं है। अगर कांग्रेस आलाकमान ने समय रहते पर्याप्त राजनीतिक परिपक्वता और कौशल नहीं दिखाया तो झारखंड में झामुमो-कांग्रेस सरकार बनवाने में भूमिका निभाने वाले आरपीएन सिंह से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू तक कई चेहरे देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को अलविदा कहते नजर आयेंगे।

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