कोरोना: जो हो गए अनाथ

यह देखना राहत देता है कि कोरोना महामारी के बीच अनाथ हुए बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने की चिंता देश में सर्वोच्च स्तर पर की जा रही है। न केवल प्रधानमंत्री ने इसके लिए योजनाओं की घोषणा की बल्कि सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में इसकी मोडैलिटी तय करने का काम हो रहा है। दरअसल, कोविड जैसी महामारी अपने साथ कई तरह की चुनौतियां लेकर आती हैं। ऐसा ही एक अहम मोर्चा है उन बच्चों का जिनके माता-पिता दोनों इस महामारी का शिकार हो गए। अब तक माता-पिता के संरक्षण वाले प्यार भरे माहौल में पल बढ़ रहे इन बच्चों के लिए महामारी ऐसी विपदा बन कर आई जिसका कोई ओर-छोर ही न रहा। कल को वायरस का खतरा पूरी तरह समाप्त हो जाए, तब भी इन बच्चों की दुनिया और इनका जीवन पहले जैसा नहीं होने वाला। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इन बच्चों के खाने-पीने, रहने-सहने और पढऩे-लिखने की क्या व्यवस्था होगी। पहले की पीढियों की बात करें तो संयुक्त परिवार के चलन के कारण कम से कम भावनात्मक स्तर पर ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। एकल परिवारों के मौजूदा दौर में बच्चे आम तौर पर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ न ज्यादा घुले-मिले होते हैं और न ही उनका खास भावनात्मक जुड़ाव होता है। ऐसे में इन बच्चों की स्नेहपूर्ण माहौल में सही देखरेख सुनिश्चित करना सचमुच एक बड़ी चुनौती है। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित योजना में तात्कालिक जरूरतों या पढ़ाई की व्यवस्था तक सीमित एकांगी नजरिया नहीं है। इसमें बच्चों के संपूर्ण विकास को ध्यान में रखते हुए वयस्क होने की उम्र 21 साल से भी आगे 23 साल तक उनका ख्याल रखने की व्यवस्था की गई है। यह भी ध्यान देने लायक बात है कि इस योजना में कोरोना से मौत की शर्त नहीं रखी गई है। इस अवधि में किसी भी वजह से माता-पिता दोनों को या किसी एक को भी, जो परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य हो, गंवाने वाले बच्चे इस योजना में शामिल किए जा रहे हैं। मगर योजना चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, असल सवाल उस पर अमल का है। मौजूदा मामले में भी ऐसे बच्चों को सरकारी बाल संरक्षण गृहों में रखे जाने की बात है, जिनका परिवार परवरिश की जिम्मेदारी लेने की स्थिति में नहीं है। सरकारी बाल संरक्षण गृहों की हालत समझने के लिए मुजफ्फरपुर शेल्टर कांड जैसी घटनाओं पर नजर डालना जरूरी नहीं है। जहां ऐसा कोई चर्चित कांड नहीं हुआ है, वहां के हालात के बारे में जब तब आने वाली खबरें राज खोलती रहती हैं। ऐसे में बेहतर विकल्प वैसी संस्थाएं हो सकती हैं, जो बच्चों के कल्याण कार्यों से जुड़ी हुई हैं और अपनी साख बना चुकी हैं। इन बच्चों को उन्हें सुपुर्द किया जा सकता है और सरकार उनकी मदद कर सकती है। केंद्र को यह भी देखना होगा कि ऐसी पहल राष्ट्रीय स्तर पर हो और लगातार उसकी प्रगति पर नजर रखी जाए। इन बच्चों के प्रति यह हमारी जवाबदेही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

%d bloggers like this: