परमार्थ से ही होता जीवन सार्थक

मानव को सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी माना गया है। मानव को प्रकृति ने हृदय के साथ ही ऐसे भावों का अनूठा वरदान दिया है, जिन्हें पाकर मानव सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी बन गया है और उसे मानव-जन्म पाने के लिए सराहना भी मिली है। महाकवि तुलसी दास ने कहा :-
‘बड़े भाग मानुस तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन गावा।’
अर्थात् इस सृष्टि में मनुष्य का तन बड़े ही सौभाग्य से मिलता है और यह मनुष्य-तन देवताओं को भी प्राप्त नहीं हो पाता। प्रश्न यह उठता है कि देवताओं के लिए भी दुर्लभ इस मानव-तन से ऐसा क्या किया जाए कि इसे यश और सार्थकता मिल सके?
विश्व-कृति श्रीमद्भागवत की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास ने जब अठारहों पुराणों की रचना कर ली, तब उनसे पूछा गया कि इन अठारहों पुराणों का सार- तत्व अगर संक्षेप में जानना हो तो आप क्या कहेंगे?
महर्षि वेदव्यास ने उत्तर दिया था :-
‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकर: पुण्याय, पापाय परपीडणं।’
अर्थात् अठारहों पुराणों में व्यास के मात्र दो ही वचन हैं, एक ‘परोपकार ही पुण्य है’ और दूसरा ‘परपीड़ा ही पाप है।’ महर्षि के इसी तत्व को महाकवि तुलसीदास ने इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है :-
‘परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अघमाई।’
अर्थात् दूसरों के प्रति हित करना यानी परोपकार जैसा कोई धर्म नहीं है और किसी दूसरे को पीड़ा पहुंचाने से बढक़र कोई पाप नहीं होता। आज इसी प्रसंग में एक अत्यंत प्रेरक और मार्मिक प्रसंग पढऩे को मिला है, जिसमें समस्त सुधी पाठकों को भी अवगत कराना चाहता हूं—ईश्वर चंद्र विद्यासागर बचपन से ही अत्यंत उदार और सेवाभावी थे। उन्हें यह उदारता और करुणा की भावना अपनी धर्मनिष्ठ मां से मिली थी। एक दिन विद्यासागर एक बहुत गरीब लेकिन मेधावी छात्र को लेकर मां के पास पहुंचे और बोले—‘माताजी, फीस के रुपए न होने के कारण यह छात्र वार्षिक परीक्षा में नहीं बैठ पाएगा। अगर ऐसा हुआ तो इस का पूरा साल बर्बाद हो जाएगा। आप इसकी मदद कर दीजिए, तो इस बेचारे का भविष्य बन जाएगा।’
वात्सल्यमयी मां के पास उस समय रुपए नहीं थे। उन्होंने कुछ देर सोचा और अपने गले में पड़ा सुहाग का प्रतीक ‘मंगल सूत्र’ निकाल कर उस मेधावी छात्र को दे दिया। कृतज्ञ छात्र ने उस मंगलसूत्र को गिरवी रख कर अपनी फीस भर दी और परीक्षा भी दे दी। वह परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और ट्यूशन पढ़ा-पढ़ाकर उसने रुपए इक_े किए। एक दिन सेठ से वह मंगलसूत्र वापस लेकर अत्यंत कृतज्ञ भाव से वह लडक़ा विद्या सागर की मां के पास पहुंचा और मंगलसूत्र मां के चरणों में रख दिया।
विद्यासागर की विदुषी मां बोली—‘बेटा, मेरे इस आभूषण का नाम ‘मंगलसूत्र’ है, इसीलिए मैंने यह तुम्हें दिया था। जानते हो, मंगल कार्य में काम आकर यह आज धन्य हो गया है। मुझे अब इसकी जरूरत नहीं है। तुम इसे बेचकर अपनी उच्च शिक्षा की व्यवस्था कर लेना, जिससे मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। सच कहूं, मेरी ससुराल से मिला यह आभूषण तुम्हारे काम आकर सार्थक हो गया है।’
सच मानिए, इस प्रेरक प्रसंग को पढक़र मुझे लगा है कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मां से मिले उच्च संस्कारों ने ही उन्हें भी इतना महान बना दिया है। आज तो हम स्वार्थों में इतने लिप्त हो गए हैं कि अपने सिवाय हमें किसी और की पीड़ा दिखाई ही नहीं देती। कहां इस देश भारत में दधीचि जैसे उदार परोपकारी हुए हैं, जिन्होंने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी हड्डियां दान कर दी थीं। राजा दिलीप हुए हैं, जिन्होंने एक गाय की रक्षा के लिए अपने शरीर का मांस अर्पित कर दिया था।
संत कबीर ने तो परोपकार को बहुत बड़ा माना है और घोषणा की है :-
‘परमारथ हरि रूप है, करो सदा मन लाय।
परउपकारी जीव जो, मिलते सब से धाय।’
कबीर तो समाज को चेतावनी देते हुए घोषणा ही कर देते हैं कि अगर संसार में कुछ स्थायी है, तो वह है आदमी के द्वारा अर्जित किया हुआ यश, जो परोपकार से मिलता है :-
‘धन रहे ना जोबन रहे, रहे ना गाम ना नाम।
कबीर जग में जश रहे, करदे किसी का काम।’
निस्संदेह, भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम जीवन-मूल्य परमार्थ अर्थात् परोपकार ही रहा है। हमारे जीवन में यश ही स्थायी है और यश मिलता है परमार्थ से। मेरे एक गीत की पंक्तियां हैं :-
‘धरा तो क्षमाशील है आदि से ही,
गगन भी अगर दे सुधा,तब तो जानें।
स्वयं के लिए तो जगत सांस लेता,
जगत के लिए सांस लो,तब तो जानें।’
आइए, आज हम एक संकल्प तो ले ही लें कि जान-बूझकर किसी का अहित नहीं करेंगे, बल्कि जहां तक भी हो सकेगा, परोपकार में अपने आप को लगाएंगे। तभी हम भी यश के भागी बन सकेंगे।

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