फिर आतंकी हमले, सैनिकों का बलिदान व्यर्थ न जाए

जम्मू-कश्मीर में बढ़ रही आतंकी घटनाएं चिन्ता का कारण

जम्मू-कश्मीर में बढ़ती आतंकी घटनाएं लगातार चिंता का कारण बन रही हैं। डोडा जिले में हाल ही में हुए आतंकी हमले में एक कैप्टन समेत सेना के चार जवानों और जम्मू-कश्मीर के एक पुलिसकर्मी का बलिदान इसका ताजा उदाहरण है। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि शांति और अमन की ओर लौटता जम्मू-कश्मीर एक बार फिर आतंकवादी हमलों की चपेट में है। यदि इन घटनाओं का माकूल जवाब नहीं दिया गया, तो घाटी फिर से खूनी संघर्ष में बदल सकती है। कुछ ही दिन पहले कठुआ में एक सैन्य अफसर समेत पांच जवान आतंकियों का निशाना बने थे। इससे पहले भी जम्मू संभाग में कई जवान आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं।

यह बहुत चिंताजनक है कि कश्मीर घाटी के साथ-साथ जम्मू संभाग में भी आतंकियों की गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। हाल की घटनाओं से लगता है कि आतंकियों ने जम्मू संभाग को अपनी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बना लिया है। जब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है, तब आतंकियों का सक्रिय होना और अपने मनसूबों को सफल बनाना गंभीर चिंता का विषय है।

पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकी न केवल घुसपैठ कर रहे हैं, बल्कि अपनी गतिविधियों को अंजाम देने और सेना को निशाना बनाने में भी सफल हो रहे हैं। सरकार को उन खूनी हाथों को खोजना होगा, अन्यथा खूनी हाथों में फिर खुजली आने लगेगी। हमें इस काम में पूरी शक्ति और कौशल लगाना होगा। आदमखोरों की मांद तक जाना होगा, अन्यथा हमारी खोजी एजेंसियों एवं सेना की काबिलीयत पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा कि कोई भी व्यक्ति कभी भी पूरे प्रांत की शांति और जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकता है और हमारी संवेदनाओं को झकझोर सकता है।

डोडा वारदात की जिम्मेदारी लेने वाले “कश्मीर टाइगर्स” जैसे आतंकी संगठनों की ताजा बौखलाहट की एक बड़ी वजह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की बहाली को लेकर बढ़ी सरगर्मी है। राज्य में लोकप्रिय सरकार के गठन के लिए अगले चंद महीनों में ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में, आतंकियों की बेचैनी समझी जा सकती है। लोकसभा चुनाव में घाटी में लोगों का मतदान केंद्रों पर उमड़ना और दशकों पुराना रिकॉर्ड टूटना, यदि विधानसभा चुनाव में लोगों का उत्साह और बढ़ता है, तो जिन “स्लीपर सेल्स” की बदौलत वे दहशत का कारोबार चलाते हैं, वे भी मुख्यधारा के प्रति आकर्षित हो सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड मतदान से पाकिस्तान बौखलाया है। इसी का परिणाम है लगातार हो रहे आतंकी हमले। इन हमलों ने आंतरिक सुरक्षा के लिए नई चुनौतियां पैदा की हैं। जम्मू में रियासी, कठुआ और डोडा के आतंकी हमले चिंता का बड़ा कारण बने हैं। जम्मू-कश्मीर का माहौल सुधरने के बाद वहां के बाजार और पर्यटक स्थल गुलजार हुए हैं और राज्य की अर्थव्यवस्था सुधर रही है। इसलिए देशद्रोही नहीं चाहते कि कश्मीर में शांति आए और निर्वाचित सरकार काम करे।

केंद्र सरकार के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। क्या इन आतंकी घटनाओं को केंद्र सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया है? जो सरकार पाकिस्तान में घुसकर बदला ले सकती है, वह सरकार अब तक शांत क्यों है? यह सवाल उठता है कि आतंकी जिस तरह अपनी रणनीति बदलकर सुरक्षा बलों को अधिक क्षति पहुंचा रहे हैं, वह किसी बड़ी साजिश का संकेत है। एक ओर सीमा पार से होने वाली आतंकियों की घुसपैठ पर प्रभावी नियंत्रण करना होगा, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान को नए सिरे से सबक भी सिखाना होगा। यह अनिवार्य हो गया है, क्योंकि पिछले कुछ समय में आतंकी हमलों में बलिदान होने वाले सैनिकों की संख्या बढ़ी है।

पाकिस्तान सत्ता प्रतिष्ठानों की मदद से आतंक का खेल फिर शुरू कर रहा है। दिल्ली में बनी गठबंधन सरकार को यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि पाक पोषित आतंकवादी जम्मू-कश्मीर में शांति और अमन को कायम नहीं रहने देंगे। आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में करीब 50 जवानों ने बलिदान दिया है। यह बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है।

आतंक को करारा जवाब केवल तभी नहीं दिया जाना चाहिए जब बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों के जवान बलिदान दें, बल्कि हर बलिदान का बदला लिया जाना चाहिए। आतंकियों, उनके आकाओं और उन्हें सहयोग देने वालों पर ऐसा प्रहार किया जाना चाहिए कि वे अपनी हरकतों से बाज आएं। पाकिस्तान भले ही आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा हो, लेकिन वह जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में लगा हुआ है। उसकी घरेलू और विदेश नीति “कश्मीर” पर ही आधारित है।

केंद्र सरकार ने कश्मीर में विकास कार्यों को तीव्रता से साकार किया है। न केवल विकास की बहुआयामी योजनाएं वहां चल रही हैं, बल्कि कश्मीर को आतंकमुक्त करने में भी बड़ी सफलता मिली है। बीते साढ़े तीन दशकों के दौरान कश्मीर का लोकतंत्र कुछ तथाकथित नेताओं का बंधुआ बन गया था, जिन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए कश्मीर को डर, हिंसा, आतंक और दहशत का मैदान बना दिया था।

बढ़ती आतंकी घटनाओं पर गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह नजर बनाए हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुरक्षा बल आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देंगे। लेकिन सुरक्षा बलों को आतंकियों के प्रति अपनी रणनीति बदलनी होगी और आतंकियों को उनके ठिकानों से निकालकर ढेर करना होगा। आतंकवाद पर अंतिम प्रहार करने की तैयारी करनी होगी और साथ ही आतंकियों के मददगारों की पहचान करनी होगी।

घाटी के नागरिक समाज में पाकिस्तानी “घुसपैठ” को बढ़ावा देने में कतिपय राजनीतिक दलों का रुख भी जिम्मेदार रहा है। इसका मुकाबला हम एक होकर और सजग रहकर ही कर सकते हैं। यह भी तय है कि बिना किसी की गद्दारी के ऐसा संभव नहीं होता है। ताजा आतंकी हमलों के विकराल रूप कई संकेत दे रहे हैं, जिन्हें समझना और उनका उत्तर देना जरूरी है। यह पाकिस्तान का बड़ा षड्यंत्र है और इसका फैलाव भी बड़ा हो सकता है।

हमारी खोजी एजेंसियों और सुरक्षा व्यवस्था को अब जिम्मेदारी से, सख्ती से और ईमानदारी से जम्मू-कश्मीर को संभालना होगा।

ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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