समता, ममता और समरसता हमारे भारतीय जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं। हमारे ऋषियों ने “सर्वभूतहिते रताः” का संदेश दिया, जो प्रकृति के साथ हमारे गहरे संवाद का प्रतीक है। हमने समूची सृष्टि को स्वीकारा है, और हर जीव और निर्जीव वस्तु में ईश्वर का वास माना है। यही दृष्टिकोण हमारी संस्कृति की विशेषता है, जो कण-कण में ईश्वर को देखती है।
हालांकि, समय के साथ कुछ विचलन स्वाभाविक होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप आज हमें समता, समरसता और अधिकारों पर जोर देना पड़ रहा है। सुधारों की बात करनी पड़ रही है क्योंकि समय के प्रवाह में हम उन मूल्यों से दूर हो गए हैं, जहां हर व्यक्ति को ईश्वर तक पहुंचने की स्वतंत्रता थी। भारतीय समाज में “मनुष्य” बनने की प्रक्रिया को हमेशा महत्वपूर्ण माना गया है। हमारे परिवार, समाज, विद्यालय और धर्मगुरु इस प्रक्रिया को संभव बनाते थे।
मनुष्य-मनुष्य में भेद को हमने हमेशा अपराध माना। इसीलिए गुरू घासीदास कहते हैं, “मनखे-मनखे एक हैं।” गांधी जी ने छुआछूत के संदर्भ में कहा, “अस्पृश्यता ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है।” हिंदू समाज ने आत्मसुधार के लिए समय-समय पर कई सुधारवादी आंदोलनों को अपनाया है। इस परंपरा में गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, कबीर, नानक, संत रविदास आदि ने जड़ताओं और कुरीतियों पर प्रहार करते हुए समाज को आत्मालोचन के लिए प्रेरित किया।
हिंदू समाज की खासियत यह है कि उसने प्रश्नाकुलता को हमेशा मान्यता दी है। समाज सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत, जातीय विद्वेष के खिलाफ खड़ा हुआ है और स्त्री शिक्षा, न्याय और समानता के मानकों को स्वीकार करते हुए एक नया भारत बनाने की ओर बढ़ा है। जातिद्वेष को समाज में कोई मान्यता नहीं है। जाति का गौरव होना चाहिए, लेकिन जाति भेद ठीक नहीं।
भारत के इतिहास में ऐसी कई घटनाएं हैं, जिनमें समाज के हर वर्ग ने देश की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है। विदेशी आक्रामकों ने भारतीय समाज में विभाजन के बीज बोए, लेकिन भारतीय समाज ने अपनी एकता को बचाने के लिए हमेशा संघर्ष किया है।
आज, हमें समाज में जोड़ने के सूत्रों को खोजना होगा। हमें यह समझना होगा कि भारत की एकता क्यों महत्वपूर्ण है और इसके लिए क्या ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। जो लोग भारत विरोधी ताकतों से समाज को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें समझकर हमें उनके खिलाफ खड़ा होना होगा।
भारत की लंबी गुलामी से उपजी पीड़ा को आज तक भोग रहा है, लेकिन हमारी परंपरा का आध्यात्मिक उत्तराधिकार हमें जीवित रखे हुए है। भक्ति ने हमेशा भारत को बचाया और बदला है। हमारी संत परंपरा समाज में एकता और समरसता के सूत्र पिरोती रही है। आज भी सामाजिक संगठन समरसता के मंत्रदृष्टा बनकर सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
भारत जाग रहा है, अपने पुर्नअविष्कार की ओर बढ़ रहा है। यही यात्रा सामाजिक एकता और समरसता की वाहक है। सामाजिक समरसता के बिना हम “एक भारत और श्रेष्ठ भारत” नहीं बना सकते। इसलिए, एकत्व के तत्वों को खोजना और मनों को जीतना हमारी कोशिश होनी चाहिए। यही प्रयास भारत को “सशक्त भारत” बनाएगा।
— प्रो. संजय द्विवेदी