मुख्य घटनाएं:
महबूबा मुफ्ती, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने पर यह दावा किया था कि “राज्य में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा”, अब खुद अपनी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। पहले लोकसभा चुनावों में मिली हार और अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में पीडीपी की करारी हार ने पार्टी के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
अनुच्छेद 370 हटने के बाद का परिदृश्य:
महबूबा मुफ्ती की भविष्यवाणी के विपरीत, आज जम्मू-कश्मीर में हर हाथ में तिरंगा देखा जा सकता है। लेकिन पीडीपी का झंडा उठाने वाले गिने-चुने लोग ही बचे हैं। पार्टी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद महबूबा पार्टी और सरकार की बागडोर संभालने में असफल रहीं। उनके कार्यकाल में पार्टी ने न केवल अपना जनाधार खो दिया, बल्कि कई प्रमुख नेता भी पार्टी छोड़कर चले गए। महबूबा खुद अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट से चुनाव हार गईं, और उनकी बेटी इल्तिजा भी बिजबेहरा विधानसभा सीट से हार गईं।
पीडीपी का पतन:
महबूबा के नेतृत्व में पीडीपी के पतन की कहानी 2016 में शुरू हुई, जब वह मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन 2018 में सरकार गिर गई। इस बार के विधानसभा चुनावों में पीडीपी ने 84 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 3 सीटें जीतने में सफल रही। यह परिणाम पार्टी के अस्तित्व पर संकट का संकेत देता है। महबूबा के भाई तस्सदुक हुसैन मुफ्ती को भी राजनीति में स्थापित करने का प्रयास विफल रहा।
कट्टरपंथियों और आतंकवाद के प्रति नरम रुख:
महबूबा मुफ्ती के कार्यकाल में उनका कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के प्रति नरम रुख चर्चा का विषय रहा है। उन्होंने बार-बार पाकिस्तान से बातचीत की वकालत की और यहां तक कि चुनावों के दौरान जमात-ए-इस्लामी पर से प्रतिबंध हटाने की मांग की। इस कारण पीडीपी के प्रति जनता का भरोसा कम हो गया और चुनावों में उन्हें कड़ी हार का सामना करना पड़ा।
निष्कर्ष:
महबूबा मुफ्ती का राजनीतिक करियर और पीडीपी का भविष्य अब गंभीर संकट में हैं। अपने कट्टरपंथी और अलगाववादी रुख के चलते पार्टी ने न केवल जनता का समर्थन खो दिया, बल्कि अब उनके पास पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए कोई ठोस योजना भी नहीं है। पार्टी के पुनर्निर्माण के लिए महबूबा को अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा और देश के साथ खड़े रहकर राजनीति करनी होगी।