देहरादून। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) को लेकर हमेशा से विपक्षी दलों द्वारा सवाल उठाए जाते रहे हैं। कांग्रेस और पूरे विपक्ष के लिए यह एक फेवरेट सब्जेक्ट रहा है, जिसका इस्तेमाल फेक नैरेटिव सेट करने के लिए किया जाता रहा है। हाल ही में लोकसभा चुनाव के बाद से बीजेपी और आरएसएस को लेकर कई बातें हो रही हैं। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की तरफ से यह नैरेटिव सेट करने की कोशिश की जा रही है कि बीजेपी और आरएसएस के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
विपक्ष का दावा है कि सहयोगियों के सहारे सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी कमजोर प्रधानमंत्री हो गए हैं। मोहन भागवत ने लोककल्याण मार्ग पर मिसाइल चला दी है। लेकिन इन दावों को नरेंद्र मोदी के आरएसएस कार्ड से सीधा जवाब मिला है। नरेंद्र मोदी सरकार ने 58 साल से सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस गतिविधियों में भाग लेने पर लगा बैन हटा दिया है। इस फैसले पर हंगामा मचना तय था और हुआ भी कुछ ऐसा ही। आलोचकों का कहना है कि मोदी विचारधारा के आधार पर सरकारी दफ्तरों का राजनीतिकरण कर रहे हैं।
58 साल पहले का बैन और इंदिरा सरकार
सबसे पहले 58 साल पहले के उस आदेश के बारे में बताते हैं जिसके जरिए इंदिरा गांधी की सरकार ने आरएसएस के कार्यक्रम में सरकारी कर्मचारियों के शामिल होने पर बैन लगाया था। नवंबर 1966 को इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस वाला यह बैन लगाया था। इसके पहले 7 नवंबर को गौ हत्या वध पर कानून बनाने की मांग को लेकर आरएसएस समर्थित आंदोलन को पुलिस की गोलियों से कुचला गया था। इस गोलीबारी में कई साधु संत मारे गए थे।
गृह मंत्रालय के सर्कुलर
30 नवंबर, 1966 को गृह मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी करते हुए कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरकारी कर्मचारियों द्वारा जमात-ए-इस्लामी की सदस्यता या गतिविधियों में किसी भी भागीदारी के संबंध में सरकार की नीति के बारे में कुछ संदेह उठाए गए हैं। सरकार ने हमेशा इन दोनों संगठनों की गतिविधियों को ऐसी प्रकृति का माना है कि सरकारी कर्मचारियों द्वारा उनमें भाग लेने पर सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 के प्रावधान लागू होंगे।
मोदी सरकार का आदेश
केंद्र सरकार के मानव संसाधनों का प्रबंधन करने वाली डीओपीटी ने 9 जुलाई के आदेश में कहा है कि निर्देशों की समीक्षा की गई है और यह फैसला लिया गया है कि 30 नवंबर 1966, 25 जुलाई 1970 और 28 अक्टूबर 1980 के संबंधित कार्यालय ज्ञापनों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जिक्र हटा दिया जाए। इसका मतलब है कि सरकारी कर्मचारी अब आरएसएस की गतिविधियों में हिस्सा ले सकते हैं।
पहली बार किसी सरकार ने आरएसएस का राजनीतिक टैग हटाया
ये तीनों सर्कुलर तब जारी किए गए थे जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1980 और 90 के दशक में जब राजीव गांधी, पी.वी. नरसिम्हा राव और राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा सरकारें सत्ता में थीं, 1966, 1970 और 1980 के परिपत्र लागू रहे। यह स्थिति तब नहीं बदली जब अटल बिहारी वाजपेयी, जो स्वयं एक स्वयंसेवक थे, 1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री थे। यही नीति 2014 से 9 जुलाई तक नरेंद्र मोदी सरकार के 10 वर्षों तक जारी रही।
आरएसएस का रुख
आरएसएस, जो खुद को एक गैर-राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठन बताता है, ने बार-बार कहा है कि उसकी गतिविधियाँ ऐसे प्रतिबंधों से प्रभावित नहीं होती हैं। संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले एक सांसद ने कहा कि पहले भी सरकारी कर्मचारी संघ की गतिविधियों में भाग ले रहे थे क्योंकि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है। संघ में कोई सदस्यता नहीं होती और न ही मेंबरशिप का कोई रजिस्टर होता है।
9 जुलाई का सर्कुलर राज्य सरकार के कर्मचारियों पर लागू नहीं
यह सर्कुलर केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए है। राज्य सरकारों के पास अपने कर्मचारियों के लिए अपने स्वयं के आचरण नियम हैं और समय-समय पर ऐसे निर्देश जारी करते हैं। हिमाचल प्रदेश में पी.के. धूमल की भाजपा सरकार ने 24 जनवरी, 2008 को अपने कर्मचारियों पर आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने से प्रतिबंध वापस ले लिया।
मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार ने 2003 में कर्मचारियों पर प्रतिबंध लगाए, जबकि शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार ने 21 अगस्त, 2006 को एक स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि प्रतिबंध आरएसएस पर लागू नहीं हैं। फरवरी 2015 में छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की भाजपा सरकार ने एक परिपत्र जारी कर कहा कि सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने पर कोई प्रतिबंध नहीं है