*महिलाओं का ससुराल में निरादर: एक गंभीर सामाजिक समस्या
*महिलाओं को मिले समान, सम्मान*
सुजाता संजय ने वेविनार के दौरान कहा कि महिलाओं को अपने आदर्श जिम्मेदारियों को कभी नहीं भूलना चाहिए। मेरे अपने अनुभव एवं अपने क्षमता के आधार पर यह मानना है कि किसी भी तरह का प्रोत्साहन व्यक्ति के काम करने की क्षमता को बढ़ाने में कैटालिस्ट की तरह काम करता है। पुरूषों की तरह ही महिलाऐं भी सम्मान पाने की हकदार हैं, क्योंकि अपने अद्भूत साहस, अथक परिश्रम तथा दूरदर्शी बुद्विमत्ता के आधार पर अपने देश की महिलाऐं विश्वपटल पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो रही हैं। मानवीय साहस, संवेदना, करूणा, वात्सल्य जैसे भावों से परिपूर्ण अनेक नारियों ने युग निर्माण में अपना योगदान दिया।
विवाह एक नए जीवन की शुरुआत होती है, जहाँ महिला अपने माता-पिता का घर छोड़कर ससुराल को अपनाती है। लेकिन कई बार, ससुराल में उसे वह प्रेम और सम्मान नहीं मिल पाता जिसकी वह हकदार होती है। उसे मानसिक, भावनात्मक और कभी-कभी शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित किया जाता है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज की गहरी जड़ों से जुड़ी हुई है।
हमारे समाज में लड़कियों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि उनका “असली घर” ससुराल होता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे वहां की सभी जिम्मेदारियां निभाएं—घर का काम संभालें, सास-ससुर की सेवा करें, पति और परिवार के हर सदस्य की देखभाल करें, और हर रिश्ते को पूरी तरह निभाएं। हमारे समाज में आज भी यह धारणा बनी हुई है कि घर के काम करना महिलाओं का कर्तव्य है। चाहे लड़की पढ़ी-लिखी हो, नौकरी करती हो या फिर गृहिणी हो, उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह रसोई से लेकर सफाई, बच्चों की देखभाल और मेहमानों की सेवा तक हर जिम्मेदारी निभाए। लेकिन सवाल यह है कि घर केवल महिला का नहीं होता, तो फिर घर के कामों की जिम्मेदारी सिर्फ उसी की क्यों?
हमारे समाज में सदियों से यह मानसिकता बनी हुई है कि लड़की की परवरिश घर संभालने के लिए होती है, बचपन से ही लड़कियों को रसोई और सफाई के काम सिखाए जाते हैं, जबकि लड़कों को इससे दूर रखा जाता है। बहुत से परिवारों में लड़कों को यह सिखाया जाता है कि घर के काम करना उनकी जिम्मेदारी नहीं है, जिससे वे बड़े होकर इसे महिलाओं का ही कर्तव्य मानने लगते हैं।
अगर लड़की ऑफिस का काम करके घर आती है, तब भी उससे उम्मीद की जाती है कि वह रसोई में जाए, जबकि पुरुष आराम करते हैं। यदि कोई पुरुष घर का काम करता है, तो कई बार समाज उसे ताना मारता है, जबकि लड़की को यह काम करना ही उसका फर्ज माना जाता है। यहां तक की अपने बच्चों की देखभाल एक मां को ही करनी पड़ती है।
बच्चों की परवरिश सिर्फ माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि पूरे परिवार को इसमें सहयोग देना चाहिए। दादा-दादी न सिर्फ अपने अनुभवों और संस्कारों से बच्चों का मार्गदर्शन कर सकते हैं, बल्कि उन्हें सुरक्षित और प्रेम से भरा वातावरण भी दे सकते हैं। जब पूरा परिवार मिलकर बच्चों की देखभाल करेगा, तभी वे सही दिशा में आगे बढ़ेंगे और एक खुशहाल जीवन जी पाएंगे।
आजकल समाज में एक धारणा बन गई है कि बच्चों की देखभाल सिर्फ माता-पिता का कर्तव्य है और दादा-दादी केवल आराम करने के लिए होते हैं। लेकिन ऐसा सोचना गलत है। बच्चों की देखभाल पूरे परिवार की जिम्मेदारी होती है। दादा-दादी को भी अपना योगदान देना चाहिए, ताकि माता-पिता पर ज्यादा दबाव न पड़े। बच्चे जितना माता-पिता से सीखते हैं, उतना ही दादा-दादी से भी सीखते हैं।
निरादर के कारण महिलाएँ अवसाद, चिंता और आत्मग्लानि से ग्रस्त हो सकती हैं। बार-बार अपमान और तिरस्कार से उनका आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है। कई बार महिलाएँ इस स्थिति को सहने के कारण परिवार और समाज से कट जाती हैं। निरंतर तनाव का असर उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, जिससे वे बीमार रहने लगती हैं। जब एक महिला को ससुराल में सम्मान नहीं मिलता, तो उसके पति के साथ संबंध भी प्रभावित होते हैं।
हर लड़की को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाना चाहिए ताकि वह अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सके। महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। ससुराल वालों को बहू को बेटी की तरह अपनाने और उसे समान सम्मान देने की मानसिकता अपनानी चाहिए। पति को अपनी पत्नी का समर्थन करना चाहिए और उसे परिवार में समान स्थान दिलाना चाहिए।
महिलाओं का ससुराल में निरादर न केवल उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाता है, बल्कि परिवार और समाज की प्रगति में भी बाधा डालता है। यह समय है कि हम सभी इस समस्या को गंभीरता से लें और महिलाओं को वह सम्मान दें जिसकी वे हकदार हैं। एक सम्मानजनक और समतामूलक समाज की नींव तभी रखी जा सकती है जब हर महिला को उसके ससुराल में बेटी की तरह अपनाया जाए, न कि बोझ की तरह