लेखक: देवेंद्र कुमार बुडाकोटी देहरादून, 30 सितंबर 2025 उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की राह आसान नहीं रही है। यहाँ की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना परंपरागत रूप से आत्मनिर्भर कृषि, वानिकी और पशुपालन पर आधारित रही है। लेकिन आधुनिक युग में जनसंख्या वृद्धि, रोजगार के सीमित अवसर और बुनियादी ढांचे की कमी ने इस क्षेत्र को गंभीर चुनौतियों से जूझने पर मजबूर कर दिया है। पलायन, बेरोजगारी और नीतिगत कमियों ने उत्तराखंड के विकास को ठहराव की स्थिति में ला खड़ा किया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: मनी ऑर्डर से पेंशन इकोनॉमी तक
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में आजादी के बाद कई लोग सेना, अर्धसैनिक बलों, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हुए। लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, प्राथमिक क्षेत्र (कृषि आधारित अर्थव्यवस्था) परिवारों का भरण-पोषण करने में असमर्थ साबित हुआ। 1970 के दशक तक लोग बेहतर सुविधाओं और जीवनशैली की तलाश में गांवों से मैदानों और शहरों की ओर पलायन करने लगे। इस दौर में अर्थशास्त्रियों ने उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ‘मनी ऑर्डर इकोनॉमी’ करार दिया, क्योंकि लोग बाहर नौकरी कर गांवों में पैसे भेजते थे।
लेकिन समय के साथ लोग स्थायी रूप से बाहर बसने लगे और पेंशन पर निर्भरता बढ़ी। लेखक ने इसे ‘पेंशन इकोनॉमी’ का नाम दिया। आज स्थिति यह है कि कई गांव ‘भूतिया गांव’ बन चुके हैं, जहां पेंशनभोगी भी लौटना नहीं चाहते। प्राथमिक क्षेत्र की कमजोरी और द्वितीय (औद्योगिक) व तृतीय (सेवा) क्षेत्रों का विकास न हो पाना इसकी प्रमुख वजहें हैं।
पलायन: पुश और पुल फैक्टर्स की भूमिका
1970 के दशक से शुरू हुआ पलायन आज भी उत्तराखंड की सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। ‘पुश फैक्टर्स’ जैसे खेती की कम आय, बुनियादी ढांचे की कमी और रोजगार के अवसरों का अभाव, लोगों को गांवों से बाहर धकेल रहे हैं। वहीं, ‘पुल फैक्टर्स’ जैसे शहरों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और नौकरियां लोगों को आकर्षित कर रही हैं।
लेखक का कहना है कि चकबंदी (भूमि समेकन) जैसे कदमों से समग्र विकास की शुरुआत हो सकती है। लेकिन इसके लिए नीतिगत स्तर पर गंभीर प्रयासों की जरूरत है।
बेरोजगारी: डिग्रीधारियों का सरकारी नौकरियों पर जोर
उत्तराखंड में बेरोजगारी की स्थिति चिंताजनक है। पुलिस कांस्टेबल और चपरासी जैसे पदों के लिए इंजीनियर, एमबीए और पीएचडी धारक आवेदन कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि निजी क्षेत्र और कॉर्पोरेट जगत सरकारी नौकरियों जैसी सुरक्षा, वेतन और पेंशन प्रदान करने में असफल रहा है। लेखक इसे राज्य की नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों की विफलता का परिणाम मानते हैं।
केंद्र और राज्य स्तर पर शिक्षा और रोजगार के बीच का अंतराल भी एक बड़ी समस्या है। शिक्षा नियोजनकर्ताओं ने पाठ्यक्रम को आजीविका और रोजगार से जोड़ने की दिशा में कभी गंभीर प्रयास नहीं किए।
ग्रामीण महिलाओं की बदलती सोच: सशक्तिकरण का नया रूप
लेखक ने समाजसेवी बच्ची सिंह बिष्ट के हवाले से बताया कि ग्रामीण महिलाएं परंपरागत कृषि की रीढ़ रही हैं। लेकिन अब वे अपनी बेटियों को पढ़ने, नौकरी करने और स्थायी रोजगार वाले जीवनसाथी चुनने के लिए प्रेरित कर रही हैं। यह बदलाव एक ओर महिला सशक्तिकरण का संकेत है, लेकिन दूसरी ओर गांवों के खाली होने का कारण भी बन रहा है।
लेखक की 87 वर्षीय मां के शब्दों में, “महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी” दशकों पुरानी समस्याएं हैं, जो आज भी जस की तस बनी हुई हैं।
पंचायती राज: विकेंद्रीकरण की जरूरत
उत्तराखंड में ग्रामीण विकास के लिए पंचायतों की मजबूत भागीदारी जरूरी है। लेखक का सुझाव है कि ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव सीधे जनता द्वारा हो। इससे विकेंद्रीकरण और जनसहभागिता को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही, पंचायत राज संस्थाओं को वास्तविक शक्ति सौंपने की आवश्यकता है।
वर्तमान में चलाए गए ग्रामीण विकास कार्यक्रम आजीविका के टिकाऊ साधन प्रदान करने में असफल रहे हैं। कोविड के दौरान गांव लौटे 95% से अधिक लोग फिर से शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। यह योजनाओं की खराब डिजाइन या उनके क्रियान्वयन में कमियों को दर्शाता है।
रिवर्स माइग्रेशन: एक लंबी और कठिन राह
रिवर्स माइग्रेशन की बातें भले ही हो रही हों, लेकिन शहरी जीवनशैली के अभ्यस्त लोग गांवों में टिक नहीं पा रहे। “ठंडु रे ठंडु, मेरा पहाड़ की हवा ठंडु पानी” जैसे गीत उनकी सोच को नहीं बदल पाए। लोग अब “पहाड़ी-पहाड़ी” कहलाना भी पसंद नहीं करते।
यहां तक कि राज्य के विधायक भी गैरसैंण में शीतकालीन सत्र आयोजित करने से कतराते हैं, जो पहाड़ों में बुनियादी ढांचे और सुविधाओं की कमी को उजागर करता है। रिवर्स माइग्रेशन की राह अभी लंबी और कठिन है।
नीतिगत सुधारों की जरूरत
लेखक का मानना है कि उत्तराखंड के विकास के लिए नीतिगत सुधार, शिक्षा और रोजगार का बेहतर तालमेल, और पंचायती राज को सशक्त करना जरूरी है। जब तक योजनाएं जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं होंगी, पलायन और बेरोजगारी जैसी समस्याएं बनी रहेंगी।
लेखक के बारे में: देवेंद्र कुमार बुडाकोटी एक समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र में कार्यरत हैं। उनकी शोध को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन की पुस्तकों में उद्धृत किया गया है।