लेखक: देवेंद्र के. बुडाकोटी
स्वास्थ्य सेवाओं की चुनौतियां: मात्रा से अधिक गुणवत्ता का संकट
देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की खराब स्थिति को अक्सर मानव संसाधनों की कमी से जोड़ा जाता है, लेकिन वास्तविक समस्या केवल संख्या की कमी नहीं है। मौजूदा स्वास्थ्यकर्मियों की कार्यकुशलता, प्रतिबद्धता और सेवा वितरण में बाधाओं का भी बड़ा योगदान है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने चिकित्सा संस्थानों में नर्सिंग सीटें बढ़ाने की घोषणा की, जो मानव संसाधन वृद्धि की दिशा में सकारात्मक कदम है। हालांकि, इससे स्वास्थ्य सेवाओं में वास्तविक सुधार होगा या नहीं, यह समय के गर्भ में है। राज्य गठन के बाद डॉक्टरों और पैरा-मेडिकल स्टाफ की संख्या में इजाफा हुआ, फिर भी ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में सेवाएं चिंताजनक बनी हुई हैं। सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHC, PHC) में बुनियादी ढांचे में सुधार की बातें हुईं, लेकिन सेवा गुणवत्ता पर सवाल बने हुए हैं।
जन आक्रोश: अल्मोड़ा में प्रदर्शन की पृष्ठभूमि
हाल में अल्मोड़ा के चौखुटिया ब्लॉक में खराब स्वास्थ्य सेवाओं के खिलाफ स्थानीय लोगों ने विरोध मार्च निकाला। प्रदर्शनकारियों ने CHC मानकों लागू करने और स्वास्थ्य मंत्री के आवास घेराव के लिए देहरादून तक मार्च की योजना बनाई। यह आंदोलन राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं की कमजोरी को उजागर करता है, जहां सुधार की मांग तेज हो रही है। कोविड-19 महामारी ने विकसित देशों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की सीमाओं को भी सामने ला दिया, जिससे विकासशील देशों की स्थिति—जहां पहुंच, वहनीयता और उपलब्धता पहले से सीमित हैं—और चिंताजनक हो गई। महामारी ने चिकित्सा तकनीक और आपात स्थिति के प्रति तैयारी की कमियों को भी उजागर किया।
मौजूदा नीतियां और नई रणनीति की जरूरत
भारत की स्वास्थ्य नीतियां अब तक पहुंच (Accessibility), वहनीयता (Affordability) और उपलब्धता (Availability) पर केंद्रित रहीं। समाधान के तौर पर अधिक संस्थानों, मानव संसाधन और बुनियादी ढांचे को मजबूत करने पर जोर रहा। लेकिन अब एक वैकल्पिक दृष्टिकोण की जरूरत है। पारंपरिक विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध संस्थानों की मौजूदा शैक्षिक संरचना का उपयोग कर नर्सिंग, फार्मेसी और पैरामेडिकल क्षेत्रों में मानव संसाधन बढ़ाया जा सकता है। वे संस्थान जो पहले से बीएससी, एमएससी और पीएचडी चलाते हैं और जिनके पास प्रयोगशालाएं और ढांचा है, उन्हें प्रमाणपत्र, डिप्लोमा और डिग्री पाठ्यक्रम शुरू करने की अनुमति दी जा सकती है।
व्यावहारिक प्रशिक्षण और सहयोग का मॉडल
व्यावहारिक प्रशिक्षण और नैदानिक कक्षाओं के लिए सरकारी या निजी अस्पतालों के साथ समझौता ज्ञापन (MoU) संभव है। जिला अस्पताल, उप-जिला अस्पताल या CHC अपने क्षेत्र के महाविद्यालयों के साथ साझेदारी कर सकते हैं, जहां उचित संकाय और अधोसंरचना उपलब्ध हो। राज्य स्वास्थ्य निदेशालय की मंजूरी के बाद विश्वविद्यालय परीक्षाएं आयोजित कर डिग्री या डिप्लोमा प्रदान किए जा सकते हैं। उत्तराखंड सरकार इस रणनीति पर विचार कर नीतिगत कदम उठा सकती है।
गुणवत्ता में सुधार के लिए व्यापक कदम जरूरी
हालांकि, केवल मानव संसाधन बढ़ाने या नियुक्तियां करने से स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार नहीं होगा। सेवा वितरण की बाधाओं—जैसे संसाधनों की कमी, खराब कार्य परिस्थितियां और स्वास्थ्यकर्मियों की प्रेरणा—को दूर करना होगा। जब तक इन मुद्दों का समाधान नहीं होता, अपेक्षित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो सकतीं।
निष्कर्ष: संतुलित दृष्टिकोण की मांग
मानव संसाधन वृद्धि एक कदम है, लेकिन यह अकेला समाधान नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए बुनियादी ढांचे, प्रशिक्षण, प्रेरणा और नीतिगत समर्थन का समन्वित प्रयास जरूरी है। राज्य सरकार को स्थानीय जरूरतों और जन आक्रोश को ध्यान में रखते हुए संतुलित रणनीति अपनानी होगी।
लेखक परिचय: देवेंद्र के. बुडाकोटी समाजशास्त्री हैं और चार दशकों से विकास क्षेत्र से जुड़े हैं।