स्कूल में ‘श्रमदान’ को दंड माना जाए या जिम्मेदारी का सबक? एक बहस

देहरादून, 09 अक्टूबर 2025 हाल ही में देहरादून के एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें छात्र कुदाल और बाल्टियों की मदद से स्कूल के बाहर रेत-बजरी को अंदर लाकर गड्ढे भरते दिखाई दिए। यह घटना बारिश से स्कूल के मुख्य द्वार पर बने गड्ढों को ठीक करने के लिए छात्रों की स्वैच्छिक पहल थी। हालांकि, शिक्षा विभाग ने इसे गंभीरता से लेते हुए बाल श्रम कानून का हवाला देकर स्कूल के हेडमास्टर को निलंबित कर दिया और जांच शुरू की। इस घटना ने एक नई बहस छेड़ दी है कि क्या ‘श्रमदान’ को कोर्पोरल पनिशमेंट (शारीरिक दंड) या बाल श्रम के रूप में देखा जाए, या इसे बच्चों में जिम्मेदारी और नागरिकता की भावना विकसित करने का अवसर माना जाए। लेखक देवेंद्र कुमार बुड़ाकोटी ने इस मुद्दे पर गहन विचार व्यक्त किया है, जो जापान जैसे देशों के मॉडल और भारतीय संस्कृति के संदर्भ में इस प्रथा की उपयोगिता पर प्रकाश डालता है।

वायरल वीडियो का विवाद: छात्रों का श्रमदान या मजबूरी?

देहरादून के एक प्राथमिक विद्यालय में हाल की बारिश के कारण स्कूल के मुख्य प्रवेश द्वार पर गड्ढे बन गए थे। छात्रों ने सुझाव दिया कि सड़क किनारे उपलब्ध रेत और बजरी से इन गड्ढों को भर दिया जाए। वीडियो में छात्रों को कुदाल और बाल्टियों से रेत उठाते और स्कूल परिसर में लाते देखा गया। हेडमास्टर ने दावा किया कि न तो उन्होंने इस पहल का सुझाव दिया था और न ही इसमें उनकी सहमति थी। फिर भी, शिक्षा विभाग ने इसे बाल श्रम के दायरे में मानते हुए हेडमास्टर को निलंबित कर दिया और जांच के आदेश दिए।

इस घटना ने समाज में दो मतों को जन्म दिया है। एक पक्ष इसे बच्चों पर अनुचित बोझ मानता है, जबकि दूसरा इसे स्वैच्छिक सेवा और जिम्मेदारी की भावना के रूप में देखता है। वरिष्ठ नागरिक देवेंद्र कुमार बुड़ाकोटी की 87 वर्षीय माता ने अपने बचपन के स्कूल की यादें साझा की, जहां छात्र शिक्षकों के लिए पानी लाते, लकड़ी जुटाते, और बर्तन धोते थे, जिसे वे ‘श्रमदान’ कहती थीं।

‘श्रमदान’ पर बहस: दंड या शिक्षा का हिस्सा?

लेखक का मानना है कि अतीत में ‘श्रमदान’ को अपराध नहीं माना जाता था, और आज भी इसे कानूनी दंड के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वे पूछते हैं कि यदि गड्ढे भरना बाल श्रम माना जाए, तो स्कूलों में छात्रों द्वारा की जाने वाली अन्य स्वैच्छिक गतिविधियां—जैसे कक्षा या स्कूल की सफाई—भी संदेह के घेरे में आ जाएंगी। यह न केवल छात्रों की स्वतंत्रता को सीमित करेगा, बल्कि घरों में भी उनकी भागीदारी को प्रभावित कर सकता है।

बुड़ाकोटी का तर्क है कि ‘श्रमदान’ को शिक्षा प्रक्रिया का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए। इससे बच्चों में देश के प्रति जिम्मेदारी और अच्छे नागरिक बनने की भावना पनपेगी। वे कहते हैं कि आज के समय में शिक्षकों के लिए छात्रों को डांटना या शारीरिक दंड देना कानूनी अपराध है, लेकिन स्वैच्छिक श्रम को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।

जापान का मॉडल: सफाई से सबक और शांति

लेखक ने जापान का उदाहरण पेश किया, जहां स्कूलों में ‘सफाई का समय’ एक नियमित प्रथा है। जापानी छात्र अपनी कक्षाओं, गलियारों, और शौचालयों की सफाई खुद करते हैं। यह न केवल साफ-सफाई की आदत डालता है, बल्कि स्कूल और सार्वजनिक स्थानों के प्रति जागरूकता भी बढ़ाता है। कई अध्ययन बताते हैं कि यह समय छात्रों को मानसिक शांति और आत्म-चिंतन का अवसर भी प्रदान करता है।

हालांकि, बुड़ाकोटी ने स्पष्ट किया कि भारत को जापानी संस्कृति की अंधी नकल नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, स्कूलों की संरचना और शिक्षा प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है। वे कहते हैं कि अधिकतर शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में भेजते हैं, जो शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल उठाता है। ‘श्रमदान’ को सही ढंग से लागू करने से यह कमी दूर हो सकती है।

भारतीय संस्कृति में ‘श्रमदान’ की जड़ें

भारतीय संस्कृति में ‘श्रमदान’ की परंपरा सदियों पुरानी है। यह स्कूलों-कॉलेजों से लेकर सामाजिक संस्थाओं तक फैली हुई है। लेखक के अनुसार, देहरादून के प्राथमिक विद्यालय के छात्रों ने गड्ढे भरने की पहल स्वेच्छा से की, जिसे सम्मान मिलना चाहिए था, न कि दंड। उन्हें मजबूरी में मजदूरी करने वाला समझना गलत है। हेडमास्टर का निलंबन भी अनुचित लगता है, क्योंकि वे इस कार्रवाई में शामिल नहीं थे।

बुड़ाकोटी कहते हैं कि ‘श्रमदान’ से छात्रों में आत्मनिर्भरता और सामुदायिक जिम्मेदारी की भावना विकसित होती है। यह उन्हें भविष्य में बेहतर नागरिक बनने में मदद करता है।

समाधान का रास्ता: दिशानिर्देश बनाएं, दंड न करें

लेखक का सुझाव है कि देशभर के शैक्षणिक संस्थानों में ‘श्रमदान’ के दायरे और सीमाओं को स्पष्ट करना जरूरी है। इससे छात्रों की स्वैच्छिक सेवाओं को प्रोत्साहित किया जा सकेगा, न कि दंडित। वे कहते हैं, “श्रमदान को सही मायने में लागू करने से शिक्षा में नैतिकता और जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया जा सकता है।” शिक्षा विभाग को इस दिशा में नीति बनानी चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं पर गलत निर्णय न हों।

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